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स वृ॑त्र॒हेन्द्रः॑ कृ॒ष्णयो॑नीः पुरंद॒रो दासी॑रैरय॒द्वि। अज॑नय॒न्मन॑वे॒ क्षाम॒पश्च॑ स॒त्रा शंसं॒ यज॑मानस्य तूतोत्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa vṛtrahendraḥ kṛṣṇayonīḥ puraṁdaro dāsīr airayad vi | ajanayan manave kṣām apaś ca satrā śaṁsaṁ yajamānasya tūtot ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। वृ॒त्र॒ऽहा। इन्द्रः॑। कृ॒ष्णऽयो॑नीः। पु॒र॒म्ऽद॒रः। दासीः॑। ऐ॒र॒य॒त्। वि। अज॑नयत्। मन॑वे। क्षा॒म॒ऽपः। च॒। स॒त्रा। शंस॑म्। यज॑मानस्य। तू॒तो॒त्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:20» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:26» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् (सः) सो आप जैसे (पुरन्दरः) पुर का विदीर्ण करनेवाला (वृत्रहा) मेघहन्ता (इन्द्रः) सूर्य (कृष्णयोनीः) खींचनेवाली जिनकी योनी उन (दासीः) सुख देनेवाली घटाओं को (व्यैरयत्) विशेषता से प्रेरणा दे (मनवे) मनुष्य के लिये (क्षाम्) भूमि को (अपः,च) और जलों को (अजनयत्) उत्पन्न करे (यजमानस्य) देनेवाले के (सत्रा) सत्य में (शंसम्) स्तुति को (तूतोत्) बढ़ावे वैसे वर्त्तो ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सूर्य के समान सुख वर्षानेवाले न्याय के प्रकाश करने और सब प्रशंसकों के प्रशंसा करनेवाले हैं, वे यहाँ क्यों न बढ़ें ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे विद्वन् स भवान् यथा पुरन्दरो वृत्रहेन्द्रः सूर्यः कृष्णयोनीर्दासीर्व्यैरयन्मनवे क्षामपश्चाजनयद्यजमानस्य सत्राशंसं तूतोत्तथा वर्तेत ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (वृत्रहा) मेघस्य हन्ता (इन्द्रः) सूर्यइव योद्धा (कृष्णयोनीः) कृष्णा कर्षिका योनिर्यासान्ताः (पुरन्दरः) यः पुरं दारयति सः (दासीः) सुखस्य दात्रीः (ऐरयत्) प्रेरयति (वि) (अजनयत्) जनयति (मनवे) मनुष्याय (क्षाम्) भूमिम् (अपः) जलानि वा (च) (सत्रा) सत्येन (शंसम्) स्तुतिम् (यजमानस्य) दातुः (तूतोत्) वर्धयेत् ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्यवत्सुखवर्षका न्यायप्रकाशकाः सर्वेषां प्रशंसकानां प्रशंसकाः सन्ति तेऽत्र कथन्न वर्द्धेरन् ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सूर्याप्रमाणे सुखवर्षक व न्यायप्रकाशक आणि सर्व प्रशंसकांचे प्रशंसक असतात ते येथे का वर्धित होऊ नयेत? ॥ ७ ॥